पहले वाली बात

पहले वाली बात – अनुभव

हो सके तो तजुर्बा हासिल कर बुजुर्गों से,

धूप में बाल सफ़ेद करने की जरुरत क्या है

  • नीरज पाठक ‘अद्भुत’

होली, ईद, दिवाली, दशहरा या फिर क्रिसमस हो, हमने प्रायः सबको यह कहते पाया है कि अब पहले वाली बात कहाँ? क्या है यह पहले वाली बात? यह पहले वाली बात हमेशा ही होती है बस अंतर यह होता है कि सबका सन्दर्भ अलग हो जाता है, जिसमे सबका अपना-अपना अनुभव शामिल होता है, और जिसने जैसा पूर्व में देखा है, बस वर्तमान को उससे अलग पाते ही कह बैठते हैं, अब पहले वाली बात नहीं रही. जहाँ तक किसी के व्यक्तिगत अनुभव का प्रश्न है, उसने जैसा अनुभव किया है अपने जीवन में उसी को आधार मान बैठता है, जबकि हर बात जो पहले जैसी होती है, समय के साथ अपने को अद्यतित कर नित नयी होती जाती है, और पूर्व के अनुभव के आधार पर पहले जैसी नहीं रह जाती. हमें उनके बीच हुए बदलाव को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ना पड़ता है.

हर जीवन अपने अनुभव के आधार पर आगे बढ़ता है, अनुभव विहीन जीवन बेतरतीब होता है. ऐसे में पूर्व के अनुभवी व्यक्तित्व का सानिध्य कारगर हो सकता है. परन्तु ऐसे सानिध्य को प्राप्त करना आपके ऊपर निर्भर करता है, कि आप अपने जीवन में अनुभव संग्रह के प्रति कितने तत्पर हैं. वस्तुतः अनुभव प्राप्ति का कोई विशेष अथवा नियत आधार नहीं होता है, इसे आप कहीं से भी प्राप्त कर सकते हैं यदि आप इसके प्रति संवेदनशील हैं.

मनुष्य का शरीर अपने सभी ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग कर बाह्य तथ्य और/अथवा दत्त (data) को संसाधन हेतु नित मष्तिष्क को संप्रेषित करता रहता है. जैसी सामग्री मष्तिष्क के अन्दर जाएगी वैसी ही संसाधित होगी. यहाँ एक और बात महत्वपूर्ण है कि आपका विवेक आपको अच्छे-बुरे का आभास जरूर कराता है, परन्तु अच्छे-बुरे का विभेद आप किस सीमा तक कर पाते हैं यह आपके विवेक एवं आत्मनियंत्रण पर निर्भर करता है. यही विवेक और/अथवा आत्मनियंत्रण आपको सभी प्रकार के उचित/अनुचित निर्णयों के चयन में सहायक होता है. सब आप पर निर्भर है कि आप किसी समय विशेष में और/अथवा स्थान विशेष में किस प्रकार अवतरित होते हैं और/अथवा होना चाहते हैं. अपने मनोनुकूल वातावरण के निर्माण में आपकी ही भूमिका सदैव महत्वपूर्ण होती है.

अध्ययन-श्रवण तथा चिंतन-मनन के उपरांत ही स्वयं को वचन/कथन के योग्य समझना चाहिए. किसी भी चीज के बारे में पढ़ या सुन लेने मात्र से उसकी सत्यता प्रमाणित नहीं होती, यह कई चीजों पर निर्भर होता है जैसे लिखने वाला कौन है, बोलने वाला कौन है, वह जो भी लिखा है अथवा उसने जो भी कहा है उसकी तथ्यपरकता कितनी है, आदि. किसी भी बात को एकदम से मान लेना और उसका अनुसरण करने लग जाना भी आपको दिक्भ्रमित कर सकता है. अब प्रश्न यह है कि कोई क्या करे फिर? जो लिखा है उसे न माने और वह स्वयं ही उसकी खोज करे और अनुभव हासिल करे? नहीं कदापि नहीं. वह इन सब बातों से ऊपर उठे, अपने लिए सही कार्य, दिशा और सही मार्ग का चयन करे, फिर देखे कि उसने जो भी पढ़ा, सुना अथवा देखा है वह उसके लिए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कितना सार्थक अथवा निरर्थक प्रमाणित होता है, जिससे उसकी कार्यशैली में समुचित सुधार हो सके और समय के साथ-साथ और परिष्कृत हो सके, तथा उसका व्यक्तित्व समाज में समुचित स्थान प्राप्त कर सके.

मन की भूख पेट की भूख से बड़ी जरुर होती है, परन्तु जब तक पेट की भूख शांत करने का उपाय न हो जाये, मन की भूख पर ध्यान देना उचित नहीं. सबकी बारी आती है चाहे अभी चाहे बाद में, समय तो सबका आता ही है, बस कर्म करते रहिये, जब समय आयेगा तो फल भी अवश्य प्राप्त होगा. अपनी भावना से मजबूती के साथ जुड़े रहिये. जैसे अपना मन, अपना शरीर, अपना वस्त्र, अपना घर, अपने लोग, अपना परिवार वैसे ही अपने पडोसी, अपन समाज, अपना परिवेश, अपना राज्य और अपना देश, जिस दिन हम ऐसा समझेंगे और वैसा व्यवहार करेंगे बिना किसी से दुष्प्रेरणा (बहकावे) प्राप्त किये, समस्त विश्व अपना होगा, और फिर होगी – पहले वाली बात!

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